गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

भगवान की सेवा मे परिहार्य 32 अपराध ( वराह पुराण अध्याय 117 )

                                                       ॐ श्री महा गणेशाय नमः

भगवान वराह कहते हैं- भद्रे ! आहार की एक सुनिश्चित शास्त्रीय मर्यादा है । अतः मनुष्य को क्या खाना चाहिए या क्या नही खाना चाहिए , अब यह बतलाता हूँ , सुनो । माधवि ! जो भोजन के उद्यत पुरुष मुझे अर्पित करके भोजन करता है , उसने अशुभ कर्म ही क्यूँ न किए हों , फिर भी वह धर्मात्मा ही समझे जाने योग्य है । धर्म के जानने वाले पुरुष को प्रतिदिन धान , यव आदि - सब प्रकार के साधन मे सहायक ( जीवन रक्षणीय ) अन्न से निर्मित आहार का ही सेवन करना चाहिए । अब जो साधन मे बाधक हैं , तुम्हें उन्हे बताता हूँ-

1). जो मुझे अपवित्र वस्तुए भी निवेदित करके खाता है , वह धर्म व मुक्ति-परंपरा के विरुद्ध महान अपराध करता है , चाहे वह महान तेजस्वी ही क्यूँ न हो , यह मेरे प्रति उसका पहला अपराध है ।

2). अपराधी का अन्न मुझे बिलकुल नही रुचता , जो दूसरे का अन्न खाकर मेरी सेवा या उपासना करता है , यह दूसरा अपराध है ।

3). जो मनुष्य स्त्री संग करके मेरा स्पर्श करता है , उसके द्वारा होनेवाला यह उसका तृतीय कोटी का सेवा अपराध है ।

4). वसुंधरे ! जो रजस्वला नारी को देखकर मेरी पूजा करता है , में इसे चौथा अपराध मानता हूँ ।

5). जो मृतक का स्पर्श करके अपने शरीर को शुद्ध नही करता और अपवित्रतावस्था मे ही मेरी सपर्या मे लग जाता है , यह पांचवा अपराध है , जिसे में क्षमा नही करता ।

6). वसुंधरे ! मृतक को देखकर बिना आचमन किए मेरा स्पर्श करना छटा अपराध है ।

7). पृथ्वि ! यदि उपासक मेरी पूजा के बीच मे ही शौच के लिए चला जाए तो यह मेरी सेवा का सातवा अपराध है ।

8). वसुंधरे ! जो नीले वस्त्र से आवृत्त होकर मेरी सेवा मे उपस्थित होता है , यह उसके द्वारा आचरित होने वाला आठवाँ सेवा-अपराध है ।

9). जगत को धारण करने वाली पृथ्वि ! जो मेरी पूजा के समय अनुचित-अनर्गल बातें कहता है , यह मेरी सेवा का नवमा अपराध है ।

10). वसुंधरे ! जो शास्त्र विरुद्ध वस्तु का स्पर्श करके मुझे पाने के लिए प्रयत्न शील रहता है , उसका यह आचरण दसवां अपराध माना जाता है ।

11). जो व्यक्ति क्रोध मे आकर मेरी उपासना करता है , यह मेरी सेवा का ग्यारहवा अपराध है , इससे में अत्यंत अप्रसन्न होता हूँ ।

12). वसुंधरे ! जो निषिद्ध कर्मो को पवित्र मानकर मुझे निवेदित करता है , यह उसका बारहवाँ अपराध है ।

13). जो लाल वस्त्र या कौसुम्भ रंग ( वनकुसुम से रंगे ) के वस्त्र पहनकर मेरी सेवा करता है यह उसका तेरहवाँ सेवा-अपराध है ।

14). धरे ! जो अंधकार मे मेरा स्पर्श करता है , उसे मे चोदहवा सेवा-अपराध मानता हूँ ।

15). वसुंधरे ! जो मनुष्य काले वस्त्र धारण कर मेरे कार्यों का सम्पादन करता है , वह उसका पंद्रहवाँ अपराध है ।

16). जगद्धात्रीय ! जो बिना धोती पहने हुए मेरी उपचर्या मे संलग्न होता है , उसके द्वारा आचरित इस अपराध को मे सोलहवां अपराध मानता हूँ ।

17). माधवि ! अज्ञानवश जो स्वयं पकाकर बिना मुझे अर्पण किए खा लेता है , यह उसका सतरहवा अपराध है ।

18). वसुंधरे ! जो अभक्ष्य भक्षण ( मतस्य-मांस ) करके मेरी शरण मे आता है , उसके इस आचरण को में अठारहवा सेवा-अपराध मानता हूँ ।

19). वसुंधरे ! जो जालपाद ( बतख ) का मांस भक्षण करके मेरे पास आता है , उसका यह कर्म मेरी दृष्टी मे उन्नीसवाँ अपराध है ।

20). जो दीपक का स्पर्श कर बिना हाथ धोये ही मेरी उपासना मे संलग्न हो जाता है ,जगद्धात्रि ! उसका वह कर्म मेरी सेवा का बीसवाँ अपराध है ।

21). वरानने ! जो शमशाम मे भूमि जाकर बिना शुद्ध हुए मेरी सेवा मे उपस्थित हो जाता है , वह मेरी सेवा का इक्कीसवा अपराध है ।

22). वसुंधरे ! बाईसवा अपराध वह है , जो पिण्याक ( हींग ) भक्षण कर मेरी उपासना मे उपस्थित होता है ।

23). देवी ! जो सूअर आदि के मांस को प्राप्त करने का यत्न करता है , उसके इस कार्य को मे तेईसवा अपराध मानता हूँ ।

24). जो मनुष्य मदिरा पीकर मेरी सेवा मे उपस्थित हो जाता है , वसुंधरे ! मेरी दृष्टी मे यह चौबीसवा अपराध है ।

25). जो कुसुंभ ( करमी ) का शाक खाकर मेरे पास आता है , देवि ! यह मेरी सेवा का पच्चीसवा अपराध है ।

26). पृथ्वि ! जो दूसरे के वस्त्र पहनकर मेरी सेवा मे उपस्थित होता है , उसके इस कर्म को में छब्बीसवा अपराध मानता हूँ ।

27). वसुंधरे ! सेवापराधों मे सत्ताइसवा अपराध वह है , जो नया अन्न उत्पन्न होने पर उसके द्वारा देवताओं और पितरों का यजन न कर उसे स्वयं खा लेता है ।

28). देवि ! जो व्यक्ति जूता पहनकर किसी जलाशय या बावडी पर चला जाता है , उसके इस कार्य को में अट्ठाइसवा अपराध मानता हूँ ।

29). गुणशालिनी ! शरीर मे उबटन लगाकर जो बिना स्नान किए मेरे पास चला आता है , यह उनतीसवा सेवा-अपराध है ।

30). जो पुरुष अजीर्ण से ग्रस्त होकर मेरे पास आता है , उसका यह कार्य मेरी सेवा का तीसवा अपराध है ।

31). यशश्विनी ! जो पुरूष मुझे चन्दन और पुष्प अर्पण किए बिना पहले धूप देने मे ही तत्पर हो जाता है , उसके इस अपराध को में इकत्तीसवा अपराध मानता हूँ ।


32). मनस्विनि ! मेरे आदीद्वारा मंगल शब्द किए बिना ही मेरे मंदिर के द्वार को खोलना बत्तीसवा अपराध है । देवि ! इस बत्तीसवे अपराध को महाअपराध समझना चाहिए ।    

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