गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

इस्तांबुल लाइब्रेरी 'मकतब-ए-सुल्तानिया' के ग्रंथ “सायर-उल-ओकुल” पेज 315 पर राजा विक्रमादित्य से सम्बन्धित एक शिलालेख का उल्लेख

हाल ही में एक सेमिनार में प्रख्यात लेखिका कुसुमलता केडिया ने विभिन्न पश्चिमी पुस्तकों और शोधों के हवाले से यह तर्कसिद्ध किया कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में बहुत गहरे अन्तर्सम्बन्ध रहे हैं। पुस्तक “फ़िंगरप्रिंट्स ऑफ़ द गॉड – लेखक ग्राहम हैन्नोक” तथा एक अन्य पुस्तक “1434″ (लेखक – गेविन मेनजीस) का “रेफ़रेंस” देते हुए उन्होंने बताया कि पश्चिम के शोधकर्ताओं को “सभ्यताओं” सम्बन्धी खोज करते समय अंटार्कटिका क्षेत्र के नक्शे भी प्राप्त हुए हैं, जो कि बेहद कुशलता से तैयार किये गये थे, इसी प्रकार कई बेहद प्राचीन नक्शों में कहीं-कहीं चीन को “वृहत्तर भारत” का हिस्सा भी चित्रित किया गया है। अब इस सम्बन्ध में पश्चिमी लेखकों और शोधकर्ताओं में आम सहमति बनती जा रही है कि पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व 12,000 वर्ष से भी पुराना है, और उस समय की कई सभ्यताएं पूर्ण विकसित थीं।
हालांकि “काबा एक शिव मन्दिर है”, इस लेखमाला का ऊपर उल्लेखित तथ्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन जैसा कि केडिया जी ने कहा है कि विश्व का इतिहास जो हमें पढ़ाया जाता है या बताया जाता है अथवा दर्शाया जाता है, वह असल में ईसा पूर्व 4000 वर्ष का ही कालखण्ड है और Pre-Christianity काल को ही विश्व का इतिहास मानता है। लेकिन जब आर्कियोलॉजिस्ट और प्रागैतिहासिक काल के शोधकर्ता इस 4000 वर्ष से और पीछे जाकर खोजबीन करते हैं तब उन्हें कई आश्चर्यजनक बातें पता चलती हैं।

यह प्रश्न कई बार और कई जगहों पर पूछा गया है कि क्या मुस्लिमों का तीर्थ स्थल “काबा” एक हिन्दू मन्दिर है या था? इस बारे में काफ़ी लोगों को शक है कि आखिर काबा के बाहर चांदी की गोलाईदार फ़्रेम में जड़ा हुआ काला पत्थर क्या है? काबा में काले परदे से ढँकी हुई उस विशाल संरचना के भीतर क्या है? क्यों काबा के कुछ इलाके गैर-मुस्लिमों के लिये प्रतिबन्धित हैं? आखिर मुस्लिम काबा में परिक्रमा क्यों करते हैं? इन सवालों के जवाब में सबसे प्रामाणिक और ऐतिहासिक तथ्यों और सबूतों के साथ भारतीय इतिहासकार पीएन ओक तथा हिन्दू धर्म के प्रखर विद्वान अमेरिकी इतिहासकार स्टीफ़न नैप की साईटों पर कुछ सामग्री मिलती है। इतिहासकारों में पीएन ओक के निष्कर्षों को लेकर गहरे मतभेद हैं, लेकिन जैसे-जैसे नये-नये तथ्य, नक्शे और प्राचीन ग्रन्थों के सन्दर्भ सामने आते जा रहे हैं, हिन्दू वैदिक संस्कृति का प्रभाव समूचे पश्चिम एशिया और अरब देशों में था यह सिद्ध होता जायेगा। कम्बोडिया और इंडोनेशिया में पहले से मौजूद मंदिर तथा बामियान में ध्वस्त की गई बुद्ध की मूर्ति इस बात की ओर स्पष्ट संकेत तो करती ही है। हिन्दू संस्कृति के धुर-विरोधी इतिहासकार भी इस बात को तो मानते ही हैं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के पश्चात कई-कई मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ा गया, लेकिन फ़िर भी संस्कृति की एक अन्तर्धारा सतत मौजूद रही जो कि विभिन्न परम्पराओं में दिखाई भी देती है।

पीएन ओक ने अपने एक विस्तृत लेख में इस बात पर बिन्दुवार चर्चा की है। पीएन ओक पहले सेना में कार्यरत थे और सेना की नौकरी छोड़कर उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास पर शोध किया और विभिन्न देशों में घूम-घूम कर कई प्रकार के लेख, शिलालेखों के नमूने, ताड़पत्र आदि का अध्ययन किया।

जब पीएन ओक ने इस सम्बन्ध में गहराई से छानबीन करने का निश्चय किया तो उन्हें कई चौंकाने वाली जानकारियाँ मिली। तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है “सायर-उल-ओकुल”, उसके पेज 315 पर राजा विक्रमादित्य से सम्बन्धित एक शिलालेख का उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि “…वे लोग भाग्यशाली हैं जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया, वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था जो हरे व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। लेकिन हम अरब लोग भगवान से बेखबर अपने कामुक और इन्द्रिय आनन्द में खोये हुए थे, बड़े पैमाने पर अत्याचार करते थे, अज्ञानता का अंधकार हमारे चारों तरफ़ छाया हुआ था। जिस तरह एक भेड़ अपने जीवन के लिये भेड़िये से संघर्ष करती है, उसी प्रकार हम अरब लोग अज्ञानता से संघर्षरत थे, चारों ओर गहन अंधकार था। लेकिन विदेशी होने के बावजूद, शिक्षा की उजाले भरी सुबह के जो दर्शन हमें राजा विक्रमादित्य ने करवाये वे क्षण अविस्मरणीय थे। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फ़ैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फ़ैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान, राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहाँ आये…”।
उस शिलालेख के अरेबिक शब्दों का रोमन लिपि में उल्लेख यहाँ किया जाना आवश्यक है…उस स्र्किप्ट के अनुसार, “…इट्राशाफ़ई सन्तु इबिक्रामतुल फ़ाहालामीन करीमुन यात्राफ़ीहा वायोसास्सारु बिहिल्लाहाया समाइनि एला मोताकाब्बेरेन सिहिल्लाहा युही किद मिन होवा यापाखारा फाज्जल असारी नाहोने ओसिरोम बायिआय्हालम। युन्दान ब्लाबिन कज़ान ब्लानाया सादुन्या कानातेफ़ नेतेफ़ि बेजेहालिन्। अतादारि बिलामासा-रतीन फ़ाकेफ़तासाबुहु कौन्निएज़ा माज़ेकाराल्हादा वालादोर। अश्मिमान बुरुकन्कद तोलुहो वातासारु हिहिला याकाजिबाय्माना बालाय कुल्क अमारेना फानेया जौनाबिलामारि बिक्रामातुम…” (पेज 315 साया-उल-ओकुल, जिसका मतलब होता है “यादगार शब्द”)। एक अरब लायब्रेरी में इस शिलालेख के उल्लेख से स्पष्ट है कि विक्रमादित्य का शासन या पहुँच अरब प्रायद्वीप तक निश्चित ही थी।

उपरिलिखित शिलालेख का गहन अध्ययन करने पर कुछ बातें स्वतः ही स्पष्ट होती हैं जैसे कि प्राचीन काल में विक्रमादित्य का साम्राज्य अरब देशों तक फ़ैला हुआ था और विक्रमादित्य ही वह पहला राजा था जिसने अरब में अपना परचम फ़हराया, क्योंकि उल्लिखित शिलालेख कहता है कि “राजा विक्रमादित्य ने हमें अज्ञान के अंधेरे से बाहर निकाला…” अर्थात उस समय जो भी उनका धर्म या विश्वास था, उसकी बजाय विक्रमादित्य के भेजे हुए विद्वानों ने वैदिक जीवन पद्धति का प्रचार तत्कालीन अरब देशों में किया। अरबों के लिये भारतीय कला और विज्ञान की सीख भारतीय संस्कृति द्वारा स्थापित स्कूलों, अकादमियों और विभिन्न सांस्कृतिक केन्द्रों के द्वारा मिली।
इस निष्कर्ष का सहायक निष्कर्ष इस प्रकार हैं कि दिल्ली स्थित कुतुब मीनार विक्रमादित्य के अरब देशों की विजय के जश्न को मनाने हेतु बनाया एक स्मारक भी हो सकता है। इसके पीछे दो मजबूत कारण हैं, पहला यह कि तथाकथित कुतुब-मीनार के पास स्थित लोहे के खम्भे पर शिलालेख दर्शाता है कि विजेता राजा विक्रमादित्य की शादी राजकुमारी बाल्हिका से हुई। यह “बाल्हिका” कोई और नहीं पश्चिम एशिया के बाल्ख क्षेत्र की राजकुमारी हो सकती है। ऐसा हो सकता है कि विक्रमादित्य द्वारा बाल्ख राजाओं पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने उनकी पुत्री का विवाह विक्रमादित्य से करवा दिया हो।

अथवा, दूसरा तथ्य यह कि कुतुब-मीनार के पास स्थित नगर “महरौली”, इस महरौली का नाम विक्रमादित्य के दरबार में प्रसिद्ध गणित ज्योतिषी मिहिरा के नाम पर रखा गया है। “महरौली” शब्द संस्कृत के शब्द “मिहिरा-अवली” से निकला हुआ है, जिसका अर्थ है “मिहिरा” एवं उसके सहायकों के लिये बनाये गये मकानों की श्रृंखला। इस प्रसिद्ध गणित ज्योतिषी को तारों और ग्रहों के अध्ययन के लिये इस टावर का निर्माण करवाया गया हो सकता है, जिसे कुतुब मीनार कहा जाता है।

अपनी खोज को दूर तक पहुँचाने के लिये अरब में मिले विक्रमादित्य के उल्लेख वाले शिलालेख के निहितार्थ को मिलाया जाये तो उस कहानी के बिखरे टुकड़े जोड़ने में मदद मिलती है कि आखिर यह शिलालेख मक्का के काबा में कैसे आया और टिका रहा? ऐसे कौन से अन्य सबूत हैं जिनसे यह पता चल सके कि एक कालखण्ड में अरब देश, भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुयायी थे? और वह शान्ति और शिक्षा अरब में विक्रमादित्य के विद्बानों के साथ ही आई, जिसका उल्लेख शिलालेख में “अज्ञानता और उथलपुथल” के रूप में वर्णित है? इस्ताम्बुल स्थित प्रसिद्ध लायब्रेरी मखतब-ए-सुल्तानिया, जिसकी ख्याति पश्चिम एशिया के सबसे बड़े प्राचीन इतिहास और साहित्य का संग्रहालय के रूप में है। लायब्रेरी के अरेबिक खण्ड में प्राचीन अरबी कविताओं का भी विशाल संग्रह है। यह संकलन तुर्की के शासक सुल्तान सलीम के आदेशों के तहत शुरु किया गया था। उस ग्रन्थ के भाग “हरीर” पर लिखे हुए हैं जो कि एक प्रकार का रेशमी कपड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ को एक सजावटी बॉर्डर से सजाया गया है। यही संकलन “साया-उल-ओकुल” के नाम से जाना जाता है जो कि तीन खण्डों में विभाजित किया गया है। इस संकलन के पहले भाग में पूर्व-इस्लामिक अरब काल के कवियों का जीवन वर्णन और उनकी काव्य रचनाओं को संकलित किया गया है। दूसरे भाग में उन कवियों के बारे में वर्णन है जो पैगम्बर मुहम्मद के काल में रहे और कवियों की यह श्रृंखला बनी-उम-मय्या राजवंश तक चलती है। तीसरे भाग में इसके बाद खलीफ़ा हारुन-अल-रशीद के काल तक के कवियों को संकलित किया गया है। इस संग्रह का सम्पादन और संकलन तैयार किया है अबू आमिर असामाई ने जो कि हारुन-अल-रशीद के दरबार में एक भाट था। “साया-उल-ओकुल” का सबसे पहला आधुनिक संस्करण बर्लिन में 1864 में प्रकाशित हुआ, इसके बाद एक और संस्करण 1932 में बेरूत से प्रकाशित किया गया।

यह संग्रह प्राचीन अरबी कविताओं का सबसे आधिकारिक, सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है। यह प्राचीन अरब जीवन के सामाजिक पहलू, प्रथाओं, परम्पराओं, तरीकों, मनोरंजन के तरीकों आदि पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। इस प्राचीन पुस्तक में प्रतिवर्ष मक्का में आयोजित होने वाले समागम जिसे “ओकाज़” के नाम से जाना जाता है, और जो कि काबा के चारों ओर आयोजित किया जाता है, के बारे में विस्तार से जानकारियाँ दी गई हैं। काबा में वार्षिक “मेले” (जिसे आज हज कहा जाता है) की प्रक्रिया इस्लामिक काल से पहले ही मौजूद थी, यह बात इस पुस्तक को सूक्ष्मता से देखने पर साफ़ पता चल जाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें